A Keyrun Rao original
पटरियों पर पड़ी वो बेजान रोटियां
जाने कहाँ से चल कर आयीं थीं
किसने उस में आंसू-पसीने से
चूल्हे पर रख कर प्यार से बनायीं थी?
पैरों के छालों सी शक्लें थी रोटियों की
पानी मांगते-मांगते सब की सब मुरझाई थी
हर एक रोटी की अपनी-अपनी तकलीफें
और अपने और अपनों की कहानियाँ थीं
शायद बहुत थक गयी थीं वो ठंडी रोटियां
मंज़िल कहीं भी नज़र में न आयी थी
मैली सी थाली में पड़ी पड़ी सांस लेती हुई
जाने किसने उन्हें कहाँ से आवाज़ लगाई थी
पटरियों पर पड़ी वो बेजान रोटियां
जाने कहाँ से चल कर आयीं थीं
गठरी से गिर के बिखर कर निराश
किस से मदद की गुहार लगायी थी
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